A++ का सच (उच्च स्तरीय गुणवत्ता)


विश्वविद्यालय के अहंकार और उसकी आक्रामकता का कारण उसका नैतिक और बौद्धिक स्खलन है। इसी ख़ालीपन को ढकने के लिए विश्वविद्यालय को समारोहजीवी और उत्सवधर्मी बना दिया गया है। समारोह आयोजित करने और उत्सव मनाने के नित्य नवीन प्रयोजन तलाशे जा रहे हैं। हर समारोह और उत्सव मेंहदी-प्रतियोगिता, रंगोली-प्रतियोगिता, पोस्टर-प्रतियोगिता तथा स्लोगन-प्रतियोगिता से आगे नहीं बढ़ पा रहा है।

१०० वर्ष से अधिक पुराने हो चुके विश्वविद्यालय का बौद्धिक आत्मविश्वास इतना जर्जर हो चुका है कि अनेक अनजान, अप्रामाणिक और स्वयं-संदिग्ध संस्थाओं से दिन-प्रतिदिन अपना मूल्यांकन कराया जा रहा है, और अनेक निरर्थक उपलब्धियों पर रोज़ अपनी पीठ थपथपाई जा रही है। 

सर्वविदित है कि जिस NAAC की A ++ रैंकिंग को कालजयी उपलब्धि बताया जा रहा है, उसकी कार्यकारिणी के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर भूषण पटवर्धन स्वयं इस सारी क़वायद को त्रुटिपूर्ण और संदिग्ध बताते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे चुके हैं।

जिस लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बीरबल साहनी, प्रोफ़ेसर डीपी मुखर्जी, प्रोफ़ेसर राधाकमल मुखर्जी, प्रोफ़ेसर राधाकुमुद मुखर्जी, प्रोफ़ेसर डीएन मज़ूमदार, प्रोफ़ेसर एके सरन, प्रोफ़ेसर एनके सिद्धान्त, प्रोफ़ेसर आरयू सिंह, प्रोफ़ेसर केसी पाण्डेय और प्रोफ़ेसर गोपाल शरण जैसे विद्वान प्रत्येक संकाय और विभाग में विद्यमान  रहे, ऐसे विश्वविद्यालय को अपनी स्थापना के सौ वर्ष बाद अपना मूल्यांकन कराने के लिए ऐसी-ऐसी अनसुनी एजेंसियों का सहारा लेना पड़ रहा है, जिनकी विश्वसनीयता/प्रामाणिकता स्वयं अज्ञात, अनिश्चित और संदिग्ध है। 

वास्तव में यह एक आत्मविश्वासविहीन विश्वविद्यालय का अस्तित्वमूलक संकट है।

सभी सुधीजन इस तथ्य को भली-भाँति समझते हैं कि साल-दर-साल लगातार बदल रहे इन मानकों की स्वयं की विश्वसनीयता कितनी शेष है, इनके प्रयोग से शिक्षकों और संस्थाओं का कितना उन्नयन हुआ है, तथा इन नए प्रयोगों के कारण प्रकाशन और अधिसंरचना के विस्तार और विकास के नाम पर एक कितने बड़े बाज़ार का विस्तार और विकास हुआ है। विश्वविद्यालय में बाज़ार के आधिपत्य का अकादमिक चरित्र के साथ क्या सम्बन्ध है, सुधीजन इससे भी परिचित हैं ही। विश्वविद्यालयों की दशा और दिशा पर चरित्र के इस बदलाव का व्यापक और निर्णायक असर दिख रहा है। 

प्राचीन आचार्य-परम्परा के अनुरूप ही विश्वविद्यालयों को भी आरम्भ में स्वायत्त बनाए रखने की कोशिश की गई, किन्तु समय के साथ-साथ चाहे-अनचाहे पहले वे प्रशासनिक और वित्तीय मामलों में सरकार के बढ़ते हस्तक्षेप के शिकार हुए और फिर अकादमिक मामलों में भी वे UGC, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के दबाव में आते चले गए।

विश्वविद्यालयों के खुलने और बन्द होने के नियम, उनकी पढ़ाई और परीक्षा की प्रविधि तथा उनके पाठ्यक्रम और पठन-पाठन की नीति, सब-कुछ सरकारें तय करने लगीं। विश्वविद्यालयों की अपनी आन्तरिक अकादमिक और प्रशासनिक संरचनाओं का कोई महत्व ही नहीं रह गया। अधिकांश कुलपति सरकार के अभिकर्ता और अधिकांश प्रोफ़ेसर्स कुलपति के मुखापेक्षी होने में ही अपना महत्व समझने लगे हैं। 

अब तो ये भी सरकार/राजभवन के द्वारा ही बताया जाने लगा है कि किस-किस महापुरुष की जयन्ती या पुण्यतिथि कब-कब और कैसे-कैसे मनाई जाए, किन-किन ऐतिहासिक घटनाओं का किस प्रकार स्मरण किया जाए, कौन से विचारों को किस-किस प्रकार सिद्ध/असिद्ध किया जाए, कौन-कौन से गावों को गोद लिया जाए, किस-किस बीमारी से ग्रसित लोगों की देख-भाल की जाए, तथा कहाँ-कहाँ और किन-किन तालाबों और कुओं की सफ़ाई की जाए।

शोधकार्य की गुणवत्ता के प्रति प्राण-प्रण से ‘सम्वेदनशील’ दिखने वाले विश्वविद्यालय में जमा होने वाले शोध-प्रबन्धों की गुणवत्ता को ‘शोधगंगा’ नामक पोर्टल पर जाकर देखा जा सकता है। 

इन शोध-प्रबन्धों में प्रस्तुत शोध-सामग्री की अप्रासंगिकता, असम्बद्धता, तार्किक विसंगति और पुनरुक्ति-दोष आदि को तो छोड़ ही दीजिए; व्याकरणीय अशुद्धियाँ, वर्तनी की त्रुटियाँ तथा वाक्य-विन्यास सम्बन्धी विसंगतियों से ये शोध-प्रबन्ध भरे हुए मिलेंगे। 

इसे एक विडम्बना ही कहा जाएगा कि चार-चार साल की पढ़ाई के बाद इंजीनियरिंग और प्रबन्धन की डिग्री लेकर बीस हज़ार रुपये की नौकरी पाने वाले विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय अपने गौरव का चिह्न मानता है।

अपने सौ वर्ष के इतिहास पर गर्वोन्मत्त और आत्ममुग्ध इस विश्वविद्यालय की ये दशा हो चुकी है कि वो अपने यहाँ विद्यार्थियों को प्रवेश लेने के लिए प्रेरित करने हेतु विज्ञापनों का सहारा लेने लगा है।

कौन नहीं जानता है कि विज्ञापन लुभाने-ललचाने, बेचने-ख़रीदने और ठगने-कमाने वाले उपक्रम के रूप में कुख्यात हैं।

इसी प्रकार, उसे अपने विद्यार्थियों की चिन्ता तो कम है, कुछ महत्वहीन देशों के विद्यार्थियों को अपने यहाँ प्रवेश देकर वो अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि से आमजन को भ्रमित करने में जुटा हुआ है।

वस्तुस्थिति तो ये है कि विश्वविद्यालय की अकादमिक सामर्थ्य किसी भी सुयोग्य विद्यार्थी को हताश करने के लिए पर्याप्त है।

विद्यार्थियों से पैसा कमाने की हवस इतनी बढ़ चुकी है कि विभिन्न परम्परागत पाठ्यक्रमों में काट-छाँट करके नए-नए स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रम बनाए जा रहे हैं। 

महाविद्यालयों के विद्यार्थियों से प्रवेश के पहले ही पंजीकरण के नाम पर  तीन-चार करोड़ रुपया वसूलने का एक नया स्टार्टअप विश्वविद्यालय ने इसी वर्ष चालू किया है।

नई शिक्षा-नीति के नाम पर पाठ्यक्रम और परीक्षा-प्रणाली पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो चुकी है। अकादमिक सत्र के बीच में पाठ्यक्रम बदल दिए जा रहे हैं और परीक्षा-प्रणाली के साथ नित निरर्थक प्रयोग किए जा रहे हैं।

विश्वविद्यालय की प्रदर्शन-प्रियता का ये आलम है कि सरकार के आह्वान पर ‘भारतीय ज्ञान परम्परा’ जैसे विषय का पठन-पाठन कराने के लिए एक ओर प्राच्य संस्कृत, प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व तथा दर्शनशास्त्र जैसे विभागों के होने के बावजूद भी नए संस्थान को खोल कर अपनी तथाकथित निष्ठा प्रदर्शित की जा रही है।

अपनी उपलब्धियों को ‘showcase’ करने को उद्यत इस विश्वविद्यालय के अकादमिक यथार्थ का प्रत्यक्ष चित्र देखने के लिए वर्ष में कभी भी आप विश्वविद्यालय का दौरा करके देख सकते हैं कि हमेशा ही विश्वविद्यालय में ग्रीष्मावकाश जैसा वातावरण ही दिखाई देता है।

व्याधि बहुत जटिल है, आयुर्वेद की भाषा में इसे सन्निपात कहा गया है।

कॉपीराइट : #A++ का सच
बृजेंद्र पांडे की कलम से, WhatsApp 

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